Anubhav Sinha In Varanasi : मशहूर फिल्म निर्देशक और ‘तुम बिन’, ‘मुल्क’ जैसी फिल्मों के निर्माता अनुभव सिन्हा इन दिनों बनारस में हैं। उन्होंने कहाबना कि रस को मैंने सिर्फ देखा नहीं, उसे जिया है।” अपने शहर से गहरे जुड़ाव का इज़हार करते हुए सिन्हा ने बताया कि वह बनारस में एक फिल्म और थिएटर फेस्टिवल की जमीन तलाशने आए हैं।
अनुभव सिन्हा ने बनारस के अल्हड़पन और अक्खड़पन को लेकर एक दिलचस्प किस्सा भी साझा किया। उन्होंने बताया कि आज मैं एक थिएटर में पहुंचा, कैमरा हाथ में था। फिल्म चल रही थी। कुछ लोग सीट पर पैर रखे बैठे थे। मैंने पूछा, ‘फोटो खींच लूं?’ तो जवाब मिला, ‘ना, पैसा लेइब।’ मैंने कहा, ‘ठीक है, नहीं खींची।’ यही है बनारस की अक्खड़ता, जो मुझे हर बार यहां मिलती है।
बाहर आकर एक और शख्स मिला, जिससे फोटो के लिए कहा, तो वह खुशी-खुशी पोज देने लगा। अनुभव ने कहा कि यह बनारसी तेवर ही बनारस को खास बनाते हैं।
बनारस पर असली फिल्म अब तक बनी नहीं
अनुभव सिन्हा का मानना है कि बनारस पर फिल्म किसी ठेठ बनारसी को ही बनानी चाहिए। उन्होंने कहा, “बनारस पर फिल्में तो बनी हैं, लेकिन बनारस पर असली फिल्म अभी बननी बाकी है। मैं कल्चरल कंजरवेटिव हूं और मुझे लगता है कि बनारस की गालियों का वही रूप रहना चाहिए जो बरसों से है। बदलाव स्वाभाविक है, लेकिन संस्कृति को संरक्षित रखना जरूरी है।
बनारस में क्यों हैं अनुभव सिन्हा ?
जब दोस्त पूछते हैं कि आप बनारस में क्या कर रहे हैं? तो अनुभव कहते हैं कि कोई फिल्म रिलीज नहीं हो रही, कोई स्क्रिप्ट नहीं लिख रहा, बस शहर को महसूस कर रहा हूं। दरअसल, कुछ समय पहले कोलकाता फिल्म फेस्टिवल में गया था। वहीं विचार आया कि मेरे अपने शहर बनारस में भी एक ऐसा फेस्टिवल होना चाहिए।
उन्होंने कहा कि अगर भारत में किसी शहर को ब्रांड कहा जाए, तो ताजमहल के बाद दूसरा सबसे बड़ा ब्रांड बनारस है। यहां छोटे ढाबों पर बैठकर लोगों से बात करना, गंगा से सुबह बातें करना, घाटों से शाम को दोस्ती करना, यही तो असली बनारस है।”
“थिएटर फेस्टिवल की तैयारी में जुटा हूं”
अनुभव सिन्हा ने कहा कि वे पिछले 35 सालों से मुंबई में हैं। थिएटर खुद नहीं करते, लेकिन देखने जरूर जाते हैं। अब थिएटर फेस्टिवल की योजना पर अपने थिएटर करने वाले दोस्तों और प्रोडक्शन टीम से विचार-विमर्श कर रहे हैं।
“अभी मैं सिर्फ बनारस की खाक छान रहा हूं। सच कहूं तो पूरी तरह आवारागर्दी कर रहा हूं।”
उन्होंने अपने बचपन की यादें भी साझा कीं, कहा मैं अपने पुराने रेस्तरां में गया, जहां दो रुपये 10 पैसे में मसाला डोसा मिलता था। कबीरचौरा पर एक रुपये में सात समोसे मिलते थे। आज भी वही अपनापन महसूस होता है।
सिन्हा बोले कि बनारस को करना नहीं पड़ता, बनारस तो बस जिया जाता है। और मैंने बनारस को जिया है।